Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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पेथडकुमार ]
[ १३॥
परिग्रह (धन-माल) को सोमा करवा दोजिये। यह भो, कुछ वर्षों में लखपती हो जाने के काबिल है।"
यह सुनकर मुनिराज बोले, कि-"महानुभावो ! ऐसा बोलना ठीक नहीं है । धन का अभिमान तो कभी किसी को करना ही नहीं चाहिये । धन तो आज है और कल नहीं। कौन कह सकता है, कि कल सबेरे ही पेथड़कुमार तुम सबसे अधिक धनवान न हो जाय।"
फिर साधुजी ने पेथडकुमार से कहा, कि-"महानुभाव ! तुम परिग्रह की सोमा करलो।" पेथड़कुमार ने उत्तर दिया, कि"गुरुदेव ! मेरे पास ऐसा कुछ भी धन-माल है ही कहां, जो मुझे सीमा करने की आवश्यकता पड़े ।" मुनिराज ने कहा, कि-"आज तुम्हारी यह दशा है, किन्तु कल ही तुम अच्छी हालत में हो सकते हो । अतः तुम्हें परिग्रह को सीमा तो कर ही लेनी चाहिये ।" पेथड़कुमार ने मुनिराज की यह बात मानली, अत: साधुनी ने उन्हें यह ब्रत करा दिया, कि-"पांच लाख रुपये तक की सम्पत्ति रखकर, शेष सब धर्म के कार्यों में खर्च कर डालूगा।"
पेथडकुमार को उस समय ऐसा जान पड़ा, कि-यह परिग्रह सीमा तो बहुत अधिक है। मुझे तो पांच हजार रुपये के भी दर्शन होना कठिन मालूम होता है, तो पांच-लाख रुपये की मर्यादा कैसे रखना ठीक हो सकती है ? किन्तु गुरुजी ने जो यह सीमा बनवाई है, तो कुछ सोच-विचारकर ही बनवाई होगी। यों सोचते हुए वे अपने घर चले आये।
पेथड कुमार की दशा, दिन-दिन खराब होने लगी। यहां तक, कि-दोनों समय खाने को भी बड़ी मुश्किल से मिलने लगा। अतः परेशान होकर, वे अपना ग्राम छोड़ अपने कुटुम्ब को साथ लिये हुए परदेश को चल दिये।
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