Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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[ जन्न कथा संग्रह पहचानता ? राजा ने कहा, नहीं गुरुदेव, कुछ विशेष पहिचान बताइये । आचार्य तो महाज्ञानी थे, उन्होंने राजा के पूर्वभव को अपने ज्ञानबले से जान लिया। और कहने लगे-मैं तुम्हें अच्छी तरह पहिचानता हूँ। अपने पूर्वभव की बात सुनो
"एक बार मैं और आर्यमहागिरि महाराज कौशाम्बी नगरी में विचरते थे। उस समय भयंकर दुष्काल पड़ा । लोगों को पेट भरना मुकिल होगया, परन्तु हमारे प्रति सबके हृदय में अत्यन्त भक्ति-: भाव होने से सब हमें अच्छे-अच्छे भोजन भिक्षा में दिया करते थे । एक दिन एक कंगला भिखारी हमारे एक साधु के पीछे हो लिया और कहने लगा कि-इस भोजन में से थोड़ा मुझे भी दीजिये,मैं कई दिनों का भूखा हूँ । साधु ने उत्तर दिया कि इस विषय में हमारे गुरू जो आज्ञा देंगे, वही हो सकेगा। यह सुनकर वह हमारे पास आया और गिड़गिड़ाकर भोजन मांगने लगा। हमने उससे कहा-देखो भाई, तुम भी हमारे समान दीक्षा ले लो, तभी इस भिक्षा के अन्त में से तुम्हें दे सकते हैं । उसने सोचा-संसार में रहते हुए भी दुःख से तो पीछा छूट ही नहीं सकता, तब दीक्षा लेकर कष्ट सहन करने में क्या हानि है ? भरपेट भोजन भी मिलेगा, और धर्मध्यान भी होगा।
यह सोच कर उसने दीक्षा लेने का निश्चय किया । हमने ज्ञान वल से जान लिया कि यह भविष्य में जैनधर्म का महान उद्धार करेगा। अतएव उसे दीक्षा दे दी। उसे कई दिन बाद भोजन मिला था, इसलिए उसने खूब डटकर खाया, और इतना खाया, कि साँस लेना भो मुश्किल होगया। परिणाम यह हुआ कि उसी रात को उसके प्राण-पखेरू इस तन के पिंजरे से उड़ गए। परन्तु वह उसी दिन नया साधु हुआ था, इसलिए बहुत से श्रावक और श्राविकायें उसे वंदन करने के लिए आई एवं बड़ी-बड़ी साध्वियाँ भी वंदन करने पधारी । जो पहले कभी उसकी ओर नजर उठाकर भी न देखते थे, वही इसे
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