Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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राजा श्रीपाल ।
इस तरह परदेश में आठ स्त्रियों से विवाह कर तथा बहुत सा धन एकत्रित करके श्रीपाल अपनी बड़ो भारी सेना लेकर उज्जैन के पास आ पहुंचे।
उज्जैन के राजा ने समझा, कि कोई बड़ा भारी राजा चढ़ आया है, अतः वह सामने चलकर शरण में आ गया।
श्रीपाल अपनी माता तथा प्रथम पत्नी मैना से मिलकर बड़े प्रसन्न हुए। आनन्दोत्सव का प्रारम्भ हुआ।
वहाँ एक नाटक मण्डली नाटक करने लगी। सभी पात्र अपना अपना पार्ट आनन्द पूर्वक कर रहे थे, किन्तु एक नटी खड़ी न हुई । उस नटी के नेत्रों से आंसुओं की धारा बह रही थी। जांच करने पर सब हालात ठीक-ठीक मालूम होगये। वह नटी और कोई नहीं, स्वयं उज्जैन के राजा की पुत्री सुरसुन्दरी ही थी। उसका पति अपने शहर को जाते हुये मार्ग में ही लूट लिया गया था । डाकुओं ने सुरसुन्दरी को पकड़ कर बेच दिया और अन्त में उसे यह नटी का सेजमार करने की नौबत आ पहुँचो।
राजा को आप-कर्मीपन तथा बाप-कर्मीपन की परीक्षा होगई । मैंना सुन्दरी कोढ़ी को ब्याही गई । पर उसके भाग्य ने लीला-लहर करदी। और सुर-सुन्दरी सुन्दर राजकुमार को ब्याही गई, उसको ऐसी विषय स्थिति हो गयी । वास्तव में कन्या का अपना भाग्य हो काम आता है। बाप क्या करे ! इसलिए कन्या आप भायो होतो है , बाप भागी नहीं।
प्रत्येक व्यक्ति को सुख-दुख अपने पाप पुण्य के अनुसार हो मिलता है, दूसरा तो निमत्त मात्र है।
अब श्रीपाल अपना राज्य लेने के लिये सेना लेकर शुभ मुहूर्त में चल पड़े। जब चम्पा नगरी थोड़ी ही दूर रह गई, तो उन्होंने इनके द्वारा यह संदेश कहला भेजा-"राजा अजीतसेन को मालूम हो कि
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