Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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श्री स्थूलीभद्र ]
अब स्थूलीभद्र शास्त्र का थोड़ा सा अवशेष रहा हुआ पूष्प-ज्ञान सीखने के लिये स्वामी भद्रबाहु के पास गये तो उन्होने कहा-तुम्हें अब शास्त्र नहीं सिखाया जा सकता। तुम उनके अयोग्य हो । यह सुनकर स्थलीभद्र सोचने लगे कि ऐसा मेरा क्या अपराध हुआ। तुरन्त उन्हें विद्याबल से अपने सिंह रूप धारण करने की घटना याद आई, और नम्रता पूर्वक पहा-महाराज, मेरी भुल हई, क्षमा कीजिये । भविष्य में ऐसी भूल न होगी । परन्तु भद्रबाहु स्वामी ने उनकी प्रार्थना फिर भी स्वीकार नहीं की। अन्त को जब संघ ने मिलकर उनसे प्रार्थना की तो उन्होंने शास्त्र का शेष भाग स्थूलीभद्र को सिखला तो दिया, परन्तु अर्थ ज्ञान अब भी न कराया। स्थूलीभद्र समग्र शास्त्रों के ज्ञाता हो गये। कहते हैं कि उनके बाद किसी का भी समस्त १४ पूर्वो का ज्ञान नहीं हुआ।
जब स्वामी भद्रबाहु का अन्तकाल निकट आया और उनका स्थान ग्रहण करने लिये अत्यन्त विद्वान और ज्ञानी साधु की आव. श्यकता हुई । उस समय ऐसे ज्ञानी केवल स्थूलीभद्र ही थे। अतएव उन्हें ही स्थान दिया गया। वे समस्त भारत के जैन संघ के नेता हुये।
स्थलीभद्र अपने चरित्र और उपदेश-कुशलता के कारण खूब प्रसिद्ध हुए । देशभर में उनका जय घोष होने लगा। उनके उपदेश से लाखों मनुष्यों का कल्याण हुआ। एक से ६६ वर्ष की अवस्था में उन्होंने अनशन करके इस शरीर को छोड़ दिया ।
कहा जाता है कि- ।
शान्तिनाथभगवान से बढ़कर कोई दूसरा ज्ञानी नहीं हुआ। दक्षाणभद्र राजा से बढ़कर कोई मानो नहीं हुआ।
शालीभद्र की तरह दूसरा कोई अधिक भोगी नहीं हुआ। और स्थूलीभद्र से बढ़कर दूसरा कोई योगी नहीं हुआ ।
संसार सदा स्थूलीभद्र के संयम की गुणगाथा गाता रहेगा।
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