Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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श्रीस्थूलीभद्र ]
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__ कोशा भी उसे हृदय से प्यार करने लगी। उसने और सबसे सम्बन्ध छोड़ दिया । स्थूलीभद्र कोशा का, और कोशा स्थूलीभद्र की हो गई । स्थूलीभद्र भोग विलास में ऐसा डूबा कि १२ वर्ष जाते देर न लगी।
स्थूलीभद्र के पिता अत्यन्त बुद्धिमान थे । पाटलीपुत्र के राजा नन्द के तो वे दाहिने हाथ से थे। उनके परामर्श के बिना राज्य का कोई भी काम न होता था। स्थलीभद्र के एक छोटा भाई था, जिसका नाम श्रेयक था। सात बहिनें थीं, जिनके नाम-यक्षा, यक्ष दत्ता, भूना, भूत्तदत्ता, सेणा, वेणी और रेणा थे। श्रेयक अपने पिता के समान ही राजकाज में दिलचस्पी रखता था, अतएव राजा नन्द ने उसे अपना अंग रक्षक नियुक्त कर दिया था।
वररूचि नामक एक ब्राह्मण को राजा नन्द के यहां से नवीन श्लोक बनाकर सुनाने के लिये सदैव १०८ सोने की मुहरें मिला करती थीं। परन्तु शकडाल मन्त्री ने अपनी युक्ति से उन मुहरों का दिया जाना बन्द करा दिया था। मंत्रीके कन्याओं की स्मरण शक्ति भी बड़ी अद्भुत थी । उक्त विद्वान ब्राह्मण के श्लोकों को केवल एकबार सुनकर हो वे ज्यों का त्यों सुना देती थीं, और उस बेचारे के नवीन बनाये हए श्लोक भी पुराने सिद्ध हो जाते थे। ब्राह्मण को अपना परिश्रम व्यर्थ होने से महान दुःख हुआ। वह मन ही मन कहने लगाइस मन्त्री से किसी न किसी प्रकार बदला अवश्य लेना चाहिये। यह मेरी सारी मेहनत को मिट्टी में मिला देता है। मैंने पानी में यन्त्र लगाकर श्लोक पाठ के साथ ही साथ उससे मुहरें बाहर निकालने की युक्ति की थी। जिससे जनता यह समझ गई थी कि मेरे श्लोकों के प्रभाव से ही श्री गंगाजी प्रसन्न होकर मुहरों की थैली मुझे प्रदान करती हैं । परन्तु उस मन्त्री ने मेरा भण्डाफोड़ कर दिया।
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