Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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[ जैन कथा संग्रह करने के लिये, कोई व्यवहार कुशलता में निपुण होने के लिये । उस जमाने में धनिक पुरुष वैश्यालयों को भी शिक्षा का द्वार समझते थे।
एक बार कोशा पूरे ठाठ के साथ महल की अटारी पर बैठी थी। भीतर तरुण वैश्यायें संगीत की मधुर ध्वनि में से वायुमंडल में आनन्द और उल्लास का रंग भर रही थीं उधर रास्ता चलने वाले पुरुष बरबस वहां टिठक जाते थे। उधर नजर उठाकर देखते हो मंत्र-मुग्ध से होकर खड़े ही रह जाते थे।
__इसी समय एक १८ वर्ष का रूपवान कुमार उस महल के नोचे आकर ठिठक गया। उसका पोशाक, उसका ठाठ, मुखमुद्रा सभी असाधारण थे। कौशा ने भी ऐसा सुन्दर मोहक रूप कभी न देखा था। उसने एक दासी को हक्म दिया--जाओ उस कुमार को मान पूर्वक बुला लाओ। दासी ने नीचे जाकर प्रणाम किया और कोकिल कंठ विनिन्दित कोमल स्वर से कहा -आपको बाई साहब बुला रही हैं, ऊपर पधारिये।
युवक ने उत्तर दिया-बाई बुलाती हैं, तो उन्हें खुद आना चाहिये । दासी के साथ में नहीं जा सकता।
दासी ने ऊपर आकर कोशा से कहा और कोशा स्वयं नीचे आकर युवक को मानपूर्वक ऊपर लिवा ले गई। जब उसे मालूम हुआ कि वह युवक पाटलीपुत्र में सिक्का जमाने वाले शकडाल मन्त्री का पुत्र स्थूलीभद्र है तो उसके हर्ष का पार न रहा । स्थूलीभद्र शिक्षा प्राप्त करने के लिये वहाँ आया था। उसे पिता ने खुले हाय खर्च करने की आज्ञा दी थी।
संसार के अनुभव की शिक्षा प्राप्त करते करते स्थूलीभद्र प्रेम पाठ में भी निपुण हो गया और कोशा के प्रेम पास में बंध गया। धन को तो कमी थी ही नहीं। मन चाहे जितना रुपया घर से मँगाता और खले हाथ खर्च करता था।
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