Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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चन्दनबाला ]
[ १७ . वसुमती को वह बाजार में लाया और बेचने को खड़ी कर दी। इसका रूप अपार था, इसलिये जो भो इसे देखता वह चकित रह जाता । इसी तरह लोगों के झुण्ड के झुण्ड उसके आस-पास इकट्ठे होगये और उसकी कीमत पूछने लगे।
वसुमती को इस समय कैसा दुःख हुआ होगा ! राजमहल में रहकर, सैकड़ों दास-दासियों से सेवा करवाने वाली को आज सरेबाजार में बिकने का मौका आया ! काल की गति कैसी विचित्र है ?
वसुमती नीचा मुंह करके खड़ी होगई और मन ही मन जिनेश्वर से प्रार्थना करने लगो-“हे जगबन्धु, हे जगन्नाथ ! जिस बल से आपने मुक्ति प्राप्त की है, उसी बल से अब मेरे शरीर में प्रकट होकर, मेरे शील की रक्षा करो।"
इसी समय वहां एक सेठ आये, जिनका नाम था धनावह । वे प्रेम की मूर्ति और दया के भन्डार थे।
वसुमती को देखते ही वे विचारने लगे कि-"अहो ! यह कोई भले घर की कन्या है। किसी दुख की मारी यह बेचारो इस पिशाच के हाथ पड़ गई है । निश्चित ही, यह बेचारी और किसी नीच के हाथ पड़ जायगी तो बड़ा कष्ट सहेगी । अतः मैं ही क्यों न इसे मुह मांगे दाम देकर खरीद लू ! यह मेरे यहां रहेगी, तो मौका आने पर अपने माँ-बाप से मिल सकेगी और अपने ठिकाने पर पहुँच जायगी।" ___यों सोच, उन्होंने मुंह मांगे दाम देकर वसुमती को खरीद लिया।
धनावह सेठ ने वसुमती से पूछा- "बहिन ! तू किसकी लड़की है ?
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