Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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[ जैन कथा संग्रह
चंड प्रद्योत ने कहा- खुशी से मांगो । किन्तु जेल से छूटने के अतिरिक्त हो वरदान मांगना । अभयकुमार-"बहुत अच्छा मैं ऐसा ही वरदान मांगूगा।
यों कहकर, उन्होंने फिर कहा-महाराज ! आप और अपनी शिवादेवी , अनलगिरि हाथी पर बैठे। आप दोनों के बीच में मैं बैटू। फिर आपका रथ-रत्न गिना जाने वाला अग्निभीरु रथ मंगाओ और उसकी चिता बनवाओ । उस चिता में हम सब साथ जल कर मर जावें । बस, मैं इतना ही मांगता हूँ। . अब, मांगने में और क्या बाकी रह गया था ? अभयकुमार की बात सुनकर, चंड प्रद्योत बड़े विचार में पड़ गये । अन्त में उन्होंने कहा-"अभयकुमार, तुम आज से स्वतंत्र हो।" अभयकुमार आजाद हो गये, किन्तु उज्जैन से जाते समय उन्होंने प्रतिज्ञा की कि-"दिन दहाड़े जब राजा चन्डप्रद्योत को उज्जैन से पकड़ के ले आऊँ, तभी मैं सच्चा अभय कुमार हूँ।"
अभय कुमार, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए एक व्यापारी बने और अपने साथ दो सुन्दर स्त्रियां लेकर उज्जैन आये । वहां आकर उन्होंने नगर की प्रधान सड़क पर एक मकान लिया।
वे दोनों स्त्रियां शृङ्गार करके ठाठ-बाठ से घूमती रहतीं और लोगों के चित्त हरण करती थीं। एकबार राजा चंडप्रद्योत ने ही उन स्त्रियों को देखा, और मोहित होकर उन्होंने अपनी दासी के द्वारा उन स्त्रियों से कहलवाया-"राजा चंडप्रद्योत तुमसे मिलना चाहते हैं, वे कब आवें ?" उन स्त्रियों ने कहा-"अरे बहिन ऐसी बात क्यों कहती हो? तुम्हारे मुह से ऐसा कहना शोभा नहीं देता।" दासी उस दिन वापिस चली गई ।
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