Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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बुद्धिनिधान अभयकुमार ]
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दूसरे दिन भी वह दासी आकर लौट गई और तीसरे दिन फिर आई । तब उन स्त्रियों ने कहा - "बहिन ! हमारे साथ हमारा एक भाई भी है । वह आज से सातवें दिन बाहर चला आवेगा । उस समय महाराज बड़ी प्रसन्नता से यहां पधार सकते हैं । दासी ने लौटकर चन्डप्रद्योत से यह बात कही । अतः वे सातवें दिन की प्रतीक्षा करने लगे। इधर अभयकुमार ने एक मनुष्य को पागल बनाया और प्रतिदिन उसे खाट में बांधकर वैद्य को दिखाने के लिये
जाने लगे । मार्ग में वह नकली पागल चिल्लाता जाता कि मैं राजा चन्डप्रद्योत हूँ, मुझे ये लोग लिये जा रहे हैं, कोई छड़ावो रे!" लोग उसकी यह बात सुनकर हँसते ।
सातवें दिन चन्डप्रद्योत अभयकुमार के यहां आये । अभयकुमार ने उन्हें खाट पर बांध दिया और खाट उठवाकर बाहर की तरफ चले । चन्द्रप्रद्योत चिल्लाने लगे- मैं राजा चन्डप्रद्योत हूँ मुझे ये लोग लिये जा रहे हैं, कोई छुड़ावो रे ! लोग यह चिल्लाहट सुनकर हँसने लगे, वे जानते थे कि यह बेचारा पागल है । अतः रोज ही इस तरह चिल्लाया करता है ।
अभयकुमार, चन्डप्रद्योत को राजगृही में लाये । चन्डप्रद्योत को देखते ही राजा श्रेणिक बड़े क्रोधित हुए और उन्हें मारने दौड़े किन्तु अभयकुमार ने उन्हें रोककर कहा - " पिताजी, ये अपने महमान !। इन पर आप किंचित् भी क्रोध न कीजिये । मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिये इन्हें यहां पकड़ लाया हूँ । अब इन्हें सम्मानपूर्व यहाँ से विदा कर दीजिये ।
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एक लकड़हारा था । वह अत्यन्त गरीब था । एकबार उसने निजी का उपदेश सुना, अतः उसे वैराग्य हो गया । उसने दीक्षा ले ती और अपने गुरू के साथ राजगृही आया |
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