Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur
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[ जैन कथा संग्रह
राजा-रानी भी यह सुनकर आश्चर्य चकित रह गए । रानी बोली-“अरे ! धारिणी तो मेरी बहन लगती है। तू उनकी पुत्री होने के कारण मेरी भो पुत्रो है। चल बेटा ! मेरे साथ चल और आनन्द पूर्वक रह ।
चन्दनबाला मृगावती के साथ राजमहल में चली गई।
वहां पहुंचकर चन्दनबाला को अपनी प्यारी माता की याद हो आई और उनका यह मधुर उपदेश याद हो आया, जो उन्होंने मन्दिर में दिया था
___ "ये राजमहल के सुख वैभव क्षणिक प्रलोभन मात्र हैं। उनमें भला यह शान्ति कैसे मिल सकती है, जो श्री जिनेश्वर देव के मुख पर दिखाई दे रही है, अहा, इनके स्मरण करने मात्र से दुःख-सागः में डूबे हुए को भी शान्ति मिलती है। बेटा! इनका पवित्र नाम कभी भी न भूलना।"
चन्दनबाला राजमहल में रहती, किन्तु उसका चित्त सदैव भगवान महावीर के ही ध्यान में रहता था । वह न तो वहाँ के वस्त्राभूषणों में लुभाती थी और न वहाँ के मेवा-मिठाइयों में ही.। वह न तो बाग बगीचों को ही देखकर मुग्ध होती थी और न नौं कर-चाकरों की सेवा देख कर ही। उसके मुंह से सदैव वीर ! वीर ! वीर ! की ध्वनि निकलती रहती थी।
उसे वीर के आदर्श-जीवन का रंग लगा था। किन्तु अभी तक श्री महावीर को केवल ज्ञान नहीं हुआ था, अतः वे न तो किसी को उपदेश ही देते थे और न किसी को अपना शिष्य ही बनाते । चन्दनबाला उनके केवलज्ञान का मार्ग देखती हुई पवित्र जीवन व्यतीत करने लगी।
थोड़े दिनों के बाद, प्रभु महावीर को केवलज्ञान तो होगया,
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