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जैनधर्मसिंधु. ॥ अथ श्रष्टमीनी स्तुति ॥ ॥ मंगल पाठ करी जस पागल, नाव धरी सु रराज जी ॥ आठ जातिना कलश करीने, न्हवरावे जिनराज जी ॥ वीरजिनेश्वर जन्म महोत्सव, कर तां शिव सुख साधेजी ॥ श्राठमनुं तप करतां श्रम घर, मंगल कमला वाधे जी ॥१॥ अष्ट करम वय री गजगंजन, श्रष्टापद परें बलीया जी ॥ श्राग्मे श्राम स्वरूप विचारी,मद आवे तस गलीया जी ॥ अष्टमी गति पहोता जे जिनवर, फरस श्राप नहिं अंग जी ॥ थामनुं तप करतां श्रम घर, नित्य नि त्य वाधे रंग जी ॥२॥ प्रातिहारज श्राप बिराजे समवसरण जिन राजे जी ॥ आठमे आठशो आग मनांखी, नवि मन संशय नांजे जी॥आवे जे प्रव चननी माता, पाले निरतिचारो जी ॥ श्रामने दि न अष्टप्रकारें, जीवदया चित्त धारो जी ॥३॥ अष्ट प्रकारी पूजा करीने, मानव नवफल लीजें जी ॥ सिकाइ देवी जिनवर सेवी, अष्टमहासिकि दीजें जी ॥ आउमनुं तप करता लीजें, निर्मल केवल झा नजी ॥ धीर विमल कवि सेवक नय कहे, तपथी कोमि कल्याण जी ॥४॥ इति ॥
॥अथ एकादशीनी स्तुति ॥ ॥ एकादशी अति रूश्रमी, गोविंद पूजे नेम ॥ कोण कारण ए पर्व महोटुं, कहो मुझशुं तेम ॥ जि