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अष्टमपरिच्छेदः
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॥ अथ अध्ययनारंग संस्कार लिख्यते ॥
अश्विनी, मूल, पूर्वा ३, मृगशीर्ष, श्रार्द्रा, पुनर्व सु, पुष्य, अश्लेषा, दस्त, शतभिषा, स्वाति, चित्रा, श्रवण, धनिष्ठा, येह नक्षत्र और बुध, गुरु, शुक्र, येह वार विद्यारंभ में शुभ है. अर्थात् इनोंमें प्रारंज
विद्या प्राप्त होती है. रवि और चंद्र, मध्यम हैं. मंगल और शनिवार त्यागने योग्य है । अमा वास्या, अष्टमी, प्रतिपत् ( एकम, ) चतुर्द्दशी, रिक्ता, षष्ठी, नवमी, ये तिथियें विद्यारंज में सदाही वर्जनी. ।
अथ उपनयनसदृश दिन और लग्न में विद्यारंज संस्कारका रंग करिये, तिसका यह विधि है. । गृहस्थगुरु प्रथम विधिसें उपनीत पुरुषके घर में पौष्टिक करे; पीछे गुरु मंदिरमें, वा उपाश्रयमें, वा कदंबवृक्षकेतले, कुशाके सनउपर आप बैठके, शिष्यको वामेपासे कुशासनोपरि बिठलाके तिसके दक्षिण कानको पूजके तीनवार सारखत मंत्र पढे. पीछे गुरु, अपने घर में, वा पाठ शाला में वा पौषधागार में, शिष्यको पालखी, वा घोडेपर चढायके मंगलगीतोंके गाते हुए, दान देते हुए, वाजंत्र वाजते हुए, यति गुरु के पास लेजाके मंगली पूजापूर्वक वास देप करवाके, पाठशाला में लेजावे . पीछे गुरु शिष्यको आगे येह शिक्षाश्लोक पढे । यथा ॥
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