Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati
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७१५ जैनधर्मसिंधु. योगमें, नैवेद्य काममें, कुधाहरण थाहार पाणिके उपयोगमें, लगा हो तिनका अनु मोदताहुं कल्या ण कारक जाणके थानंदित होताहुँ” फिर परमेष्ठि मंत्र पढके । __“॥ जं मे वाकायगयस्स वाउऊंफासासरूवं सरीरं पाणिवहे पाणिसंघट्टणे पाववढणे मिलत्तपो सणे गणे संलग्गं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ___“जो में वायु कायगत शुभवायु ऊंझावायु श्वास रूप वायु शरीर होके प्राणि वधमें, प्राणि संघातनमें, पापर्कनमें, मिथ्यात्व पोषणके कारणमें, लगा हो तिनकों निंदा गर्दा करके त्यागताएं ॥" .. “॥ जं मे वाजकायगयस्स वाजऊंकासासरूवं सरीरं पाणिरकणे पाणिजीवणे साहूण वेयावच्चे धम्मावहारे संलग्गं तं श्रणुमोएमि कहाणेणं अनि नंदेमि ॥ जो में वायुकायगत, शुशवायु ऊंजावायु श्वास वायुरूप शरीर होके प्राणि रक्षणके कार्यमे, प्राणि जीवनके कारणमें, साधुओंकी वैय्यावच्चके काममें, गर्मीकी शांतिके कारणमें, लगाहो तिन कों अनु मोदताहुँ, कल्याण कारक जाणके आनं दित होता हुँ” फिर परमेष्टिमंत्र पढके। ___“॥ जं मे वणस्सश्कायगयस्स मूलकबझिपत्त पुप्फफलबीअरस निजासरूवं सरीरं पाणिवहे पाणि संघट्टणे पाणिपीमणे पाववद्हणे मिबत्तपोसणे गणे

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