Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati

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Page 847
________________ अष्टमपरिबेद. १३ संलग्गं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥ जो में वनस्पती कायगत मूल बाल काष्ट पत्र पुष्प फल बीज रस थम रूप शरीर होके प्राणि वधमे, प्राणि संघातनमें, पाणि पीमनमें, पाप वईनमें, मिथ्यात्व पोषक स्थानोमें, लगा हो तिनकों निंदा गर्दा करके त्याग करता हुँ” ___“॥ जं मे वणस्सइकायगयस्स मूलक/बविपत्त पुप्फफलबीअरसनिङासरूवंसरीरं बुहाहरणेसुथरि हंतचेश्अपूयणेसु धम्महाणेसु नेवळकरणेसु जंतुर कणहाणेसु संलग्गं तं अणुमोएमि कहाणेणं अनि नंदे मि॥जो में वनस्पती कायगत मूल काष्ट बाल पत्र पुष्प फल बीज रस थम रूप शरीर होके कुधादूर करनेमे, अर्हत् प्रतिमाके पूजनमें, धर्म स्थानमें, नैव द्य करनेमें, जीव रक्षाके कारणमें, लगा हो तिन कों अनु मोदताहुं कल्याण कारक जाणके श्रानं दित होता हुँ” फिर परमेष्टिमंत्र पढके। ___“जं मे तसकायगयस्स रसरत्तमंसमेअहिमजा सकचम्मरोमनहनसारूवं सरीरं पाणिवहे पाणिसंघ दृणे पाणिपीडणे पाववडणे मिउत्तपोसणे गणे संल ग्गं तंनिंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥ जो में त्रस काय गत रस रुधीर मांस मजा मेद शुक्र चर्म, रोम नक नसा रूप शरीर होके प्राणि वधमें, प्राणि संघातनमें, प्राणि पीडनमे, पाप वर्जनमे, मिथ्यात्व

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