Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati

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Page 845
________________ अष्टमपरिछेद. ११ तबिंबेसु धम्मघाणेसु जंतुरकणहाणेसु धम्मोवगर णेसु जिणन्हाणेसु तन्हदाहावहरणेसु संलग्गं तं अणु मोथामि कहाणेणं अनिनंदेमि ॥ जो में उपरोक्त अप्काय होके अर्हत् चैत्यमें, अर्हत् बिंबमें, धर्म स्थानमें, जीव रदाकाममें, धर्मोप करण कार्यमें, स्नात्रा निषे कमें, तृषादाह शमनमें, लगा हो तो तिनकों अनुमोदताहुँ ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके । “॥ जं मे तेउकायगयस्त अगणिशंगालमम्मुर जालायलायविझुजकातेश्ररूवं सरीरंपाणिवहे पाणि संघट्टणे पाणिपीडणे पाववढणे मिबत्तपोसणे गणे संसगं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥” “जो में अग्नी कायगत अग्नि शंगाला मुर्मुर ज्वाला धूम्र सहित विद्युत् उदका रूप शरीर होके प्राणिवधमें, प्राणि संघातनमे, प्राणि पीमनमे, पाप वनमे, मिथ्यात्व पोषककें स्थानमें, लगा होठं तिनकों, निंदा गर्हासें त्यागताहुँ” ___“॥ जं मे तेउकायगयस्स अगणिशंगालमम्मुर जाला अलायविजुनक्कातेश्ररूवं सरीरं सीश्रावहारे जिणपूशाधूवकरणे नेवेजपाए बुहाहरणाहारपाए संलग्गं तं अणुमोएमि कहाणेणं अनिनंदे मि ॥" " जो में अग्नीकाय गत अग्नि इंगाला मुर्मुर ज्वाला धूम्रसहित विद्युत् उल्का रूप शरीर होके, मी दूर करनेमें, जिनराजके आगे धूप करनेमें, पूजाके उप

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