Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati
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जैनधर्मसिंधु.
पोषणमे लगा होउं तिनकों निंदापूर्वक त्यागताहुँ
" जं मे तसकायगयस्स रसरत्तमंसमेाहि मका सुक्कचम्म रोमनदनसारूवं सरीरं अरिहंतचे एस अरिहंतबिंबेसु धम्महाणेसु जंतुररकणठाणेसु धम्मो वगरणेसु संलग्गं तं श्रणुमोए मि कल्लाणेणं अनि नंदेमि ॥ जो में त्रस काय गत रस रुधीर मांस दाम चरबी शुक्र चर्म रोम नखरूप शरीर होके श्रर्हच्चैत्य में, अर्हत् बिंबमें, धर्म स्थानमे, जंतु रक्षा मे, धर्मो पकणमें लगा होउं तिनकों अनु मोदके आनंदित होता हुं ॥ " फिरपरमेष्टिमंत्र पढके ।
" ॥ जं मए इव जवे, मणेणं वायाए कारणं डुवं चिंतियं, डुधं नासित्रं, डुधं कयं तं निंदामि गरिहामि वो सिरामि ॥ जो मेनें इह जवमें छानंत जव म में मन वचन काया करके पुष्ट विचार किया हो दुर्वचन बोले हो, दुष्ट प्रवृत्ति करी हो तिन कों निदा पूर्वक त्याग करताहुं
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“ ॥ जं मए व जवे, मणेणं वायाए कारणं सुबु चिंतियं, सुठु जासि, सुहु कयं तं श्रणुमोणुमो एमि कलाषेणं अजिनंदे मि ॥ जो मेने इह जवमें, अनंत नव भ्रमणमें, मन वचन काया करके श्रेष्ट विचार कियाहो, श्रेष्ट जाषा बोली हो, श्रेष्ट प्रवृत्ति करी हो तिनकी अनुमोदना करताहुँ, कल्याण कार क जानके आनंदित होताहुं ॥
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