Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati

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Page 849
________________ अष्ठमपरिजेद. ७१५ यहां पहिला समारोपितसम्यक्त्व व्रतको जी फिर सम्यक्त्व व्रतारोप करना. और जिसको पहि लें सम्यक्त्व व्रतारोप न करा होवे, तिसको जी अंतकालमें सम्यत्व व्रतारोप करना योग्य है.। जिस को पहिलो व्रतारोप करा होवे, तिसको इस अंत समयमें एकशोचौवीस अतिचारोंकी थालोचना करा नी.। वे अतिचार आवश्यकादि सूत्रोंसें जान लेने.' पीथालोचना विधि करना, सो प्रायश्चित्तविधिसें जानना.। पीछे गुरु सर्व संघसहित वासश्रदतादि ग्लानके शिरमें निदेप करे. ॥ ॥ इति अंत्य संस्कारे आराधना विधिः॥ पीजे ग्लान (रोगी-बीमार ) दमाश्रमण परमे ष्टिमंत्र पाठपूर्वक कहें ॥ थायरियउवशाए, सीसे साहिम्मिए कुलगणे श्र॥ जे मे कया कसाया, सत्वे तिविहेण खामेमि ॥१॥ सवस्त समणसंघस्स, जगवयोअंजलिं करियसीसे॥ सवं खमावश्त्ता, खमामि सबस्स अयंपि ॥२॥ सबस्स जीवरासिस्स,नाव धम्म निहियनियचित्तो। सवं खमावश्त्ता, खमामि सबस्सहयंपि ॥३॥ ___ “॥ जयवं जं मए चउगगएणं देवा तिरिया मणुस्सा नेरश्था चउकसाश्रोवगएणं पंचिंदिवस हेणं हम्मि नवे अन्नेसु वा जवग्गहणेसु मणेणं वायाए कारणं दूमिया संताविश्रा अनिताश्या तस्स ष्टिमंत्र पाए, सीस विदेण खा

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