Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati
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अष्टमपरिजेद. संघ गीतनृत्यादि उत्सव करे. । ग्लान जीवितमरण की श्वाको त्यागके समाधिसहित रहे। पीजे अंतर्मु हर्त्तके श्रायां, ग्लान “सवं श्राहारं, सत्वं देहं, सवं उवहिं, वोसिरामि” ऐसें कहें। पीले ग्लान पंचपरमे ष्टिस्मरणश्रवणयुक्त शरीरको त्यागे ॥
॥ इति अनशनविधिः॥
॥ अग्निसंस्कार विधि.॥ मरणकालमें ग्लानको कुशकी शय्याऊपर स्थापन करना ।“ । जन्ममरणे नूमावेव इति व्यवहारः।"
अथ सर्वजावके नोक्ता कर्मके जोमनेवाले चेत नारूप जीवके गये हुए, अजीव पुजलरूप तिसके शरीरको सनाथता ख्यापनार्थ, तिसके पुत्रादिकोंके वास्ते, तीर्थसंस्कार विधि कहते हैं । सर्व ब्राह्मणको शिखा वर्जके शिर दाढी मूंब मुंमन कराना चाहिये, कितनेक क्षत्रियवैश्यको जी कहते हैं । तथा शबका संस्कार सर्व स्ववर्ण ज्ञातियोंने करना, अन्यवर्ण शातिवालोंने तिसका स्पर्श नही करना.। पी गंध तैलादिसें और जले गंधोदकसे शबको स्नान करना, गंधकुंकुमादिसें विलेपन कराना, मालापहि राना स्वस्वकुलोचित वस्त्राजरणासें विनूषित करना शूज जातिको सर्वथा मुंगन नही. । पीछे नवीन काष्टकी पगविनाकी कुश संथरीनले वस्त्रसे ढांकी

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