Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati

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Page 844
________________ ७१० जैनधर्मसिंधु. तिनकों निंदताहुँ गर्दा करताहुं और तिन पापोंकों त्याग करताहुं" ___“॥ जं मे पुढ विकायगयस्स सिलाले सक्करासन्हा वावुआगेरिअसुवन्नाईमहाधानरूवंसरीरं अरिहंतचे इएसु अरिहंतबिंबेसु धम्महाणेसु जंतुरकणठाणेसु धम्मो वगर णेसु संलग्गं तं अणुमोआमि कहाणेणं अनिनंदे मि॥जो में पृथ्वीकायगत शिक्षा पर कांकरे वायुकारेती माटी सुवर्णादि सप्तधातु रूप शरीर हो के अरिहंत चैत्यमें अरिहंत बिंबमें, धर्म स्थानमें, जीव रक्षण स्थानमें, धर्मोपकरणमें, लगा हो तो तिनकों अनुमोद ताहुं कल्याण कारक जाणके श्रा नंदित होता हूँ।" फिर परमेष्टिमंत्र पढके।। ___“॥ जं मे आजकायगयस्स जलकरगमहिया श्रोस्साहिमहरतणुरूवं सरीरं पाणिवहे पाणिसंघ दृणे पाणिपीमणे पाववद्वणे मिबत्तपोसणे गणे संल ग्गं तं निंदामि गरिहामि वोसिरामि ॥" जो में अपकायगत पानी करा हिम हार औस हेम हर तनुरूप शरीर होके प्राणि वध, प्राणि संघा त, प्राणि पीमक, पाप वर्धक, मिथ्यात्व पोषक स्थान में, लगा हो तो तिनपापकों निंदा गर्दा करके त्यागताहुँ' “॥ जं मे आजकायगयस्स जलकरगमहिथाश्रो स्साहिमहरतणुरूवं सरीरं अरिहंतचेश्एसु अरिहं

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