Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati

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Page 842
________________ जैनधर्मसिंधु. जे मए यांत जवनमणेण चरिं दिया जीवा, सुहमा वा बायरावा, शेषं पूर्ववत् । जो मेनें अनंत जव जमते थके चरिंदिय जीव, क्रोधादिकसें, घातित पीमित किए होय तिनका त्रिकोटी मिठा मि डुक्कम हो. " ॥ जे मए अणंतेणंजवनमणेणं पंचिंदिया देवावा मणुया वा, नेरइया वा, तिर रकजो पिया वा, जलयरा वा, थवलयरा वा, खयरा वा, सन्निया वा, सन्निया वा, सुदमा वा, बायरा वा०शेषं पूर्ववत् ॥ जो मेनें अनंत जव जमते थके पंचेंद्रिय जीव, देव, मनुष्य, नारकी, तिर्यंच, जलच र थलचर, खेचर, संज्ञी, असंझी, सुका बादर, क्रोधा, दिकसें घातित पीमित किए होय सो त्रिकोटी मिथ्या दुष्कृत हो. ॥ फिर परमेष्ठिमंत्र पाठपूर्वक श्रावक कहें । GOG "" ॥ जं मए अतेणं नवनमणेणं अलि नणि अं कोण वा, माणेण वा, मायाए वा, लोहेण वा, पंचिंदिप्रहेण वा, रागेण वा, दोसेण वा, मणेणं वायाए कारणं तस्स मिठामि डुक्कडं ॥ जो मैंने अनं त जव जमते के असत्य जाण कियाहो, क्रोधा दिक करके सो त्रिकोट । मिथ्यादुष्कृतहो. ॥” फिर परमेष्ठिमंत्र पढके कड़े | " ॥ जं मए श्रणंतेणं वनमणेणं यदिन्नं गहि श्रं कोण वा, माणेण वा० शेषं पूर्ववत् ॥ जो मेनें

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