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जैनधर्मसिंधु.
क श्राविका, वा अमुक श्रावक अमुक गुरुके पास, गृहस्थ धर्मको अंगीकार करता है. ॥ १ ॥
श्री अरिहंतको वर्जके अन्य देवको नमस्कार न करूं, जिनमतके सुसाधुकों बोमके अन्य लिंगिकों धर्मार्थे नमस्कार न करूं । २ ॥ जिन वचन स्याद्वा दयुक्त सप्त वा नव तत्त्व को सत्य कर जान ता हुं, मिथ्याशास्त्रोंके श्रवण पवन लिखनेका मुक को नियम हो । ३ । परतीर्थिको प्रणाम, गुणानुवाद, स्तवन, जक्ति, राग, सत्कार, सन्मान, दान, विनय, वर्जुन करुं. । ४ । धर्मकेवास्ते अन्य तीर्थमें तप, स्नान, होमादिक नही करूं. तिनके उचित करने योग्य कर्ममें जयणा मुऊको हो । ५ । तीन, वा पांच, वा सातवार यथाशक्तिसें चैत्यवंदन करूं, एक, वा दो वा तीन वार, प्रतिदिन सुसाधुको नमस्कार करूं, और तिसकी सेवा करूं. । ६ । एक, वा दो, वा तीनवार प्रतिदिन जिनपूजा करूं; और पर्व दिनमें स्नानादि अधिक अधिकतर पूजा करूं. इति सम्यक्त्वम् ।
कुलाचार विवाहादि कृत्यमें जीवबध होते जयणा करुं । ७ । विना प्रयोजन एकेंप्रियका जी बध न करूं, प्रयोजनके हुए जयणा करूं, । इतिप्रथमत्रतम् । । कन्या यदि पांच प्रकारका मृषावाद, नियमक रके वर्जता हुं. । इति द्वितीयत्रतम् ।
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