Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati
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जैनधर्मसिंधु. क्षिप्तोतिजक्तित्जरतः कुसुमांजलिर्यः । स प्रीणयत्वनुदिनं सुधियां मनांसि ॥२॥ देवेंः कृतकेवले जिनपतौ सानंदलत्यागतैः। संदेहव्यपरोपणदमशुजव्याख्यानबुट्याशयैः ॥ श्रामोदान्वितपारिजातकुसुमैर्यः खामिपादाग्रतो । मुक्तस्स प्रतनोतु चिन्मयहृदां जाणि पुष्पांजलिः।३।
इन तीनों वृत्तोंकरके तीन वार पुष्पांजलिोप करे.॥ लावण्यपुण्यांगनृतोहतोय,स्तवृष्टिनावं सहसैव धत्ते। सविश्वननुर्खवणावतारो, गर्जावतारं सुधियां विहंतु।। लावण्यैकनिधेर्विश्व, न स्तवृद्धिहेतुकृत् ॥ लवणोत्तारणं कुर्या, नवसागरतारणम् ॥२॥ इन दो वृत्तोंकरके दो वार लवण उत्तारना.॥
साक्षारतां सदासक्तां, निहंतुमिव सोद्यमः॥
लवणाब्धिझवणांबु, मिषात्ते सेवते पदौ ॥१॥ यह पढके लवण मिश्र जल उत्तारना. ॥ जुवनजनपवित्रताप्रमोदप्रणयनजीवनकारणं गरी यः॥ जलमविकलमस्तु तीर्थनाथक्रमसंस्पर्शिसुखावहं जनानाम् ॥१॥
यह पढके केवल जलक्षेप करे. ॥ सप्तजीतिर्विघाताई सप्तव्यसननाशकृत् ॥ यत् सप्तनरकछारसप्ताररितुलां गतम् ॥ १॥
सप्तांगराज्यफलदानकृतप्रमोदं । सत्सप्ततत्वविदनंतकृतप्रबोधम् ॥

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