Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati
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०४ जैनधर्मसिंधु. प्राणोंके नाश हुए जी न करे.। पीछे अपने घरदेह रामें अर्हत्की मध्यान्हपूजा करके, अन्नपानी समा चरे. नक्तिसें साधुओंको दान देके, अतिथीयोंकी पूजा श्रादरसत्कार करके, ओर दीन अनाथ मार्ग
गणको संतोषके, अपने व्रतऔर कुलके उचित जोज्य वस्तुका जोजन करे. ॥ साधुको आमंत्रण ऐसें करे. ॥ दमाश्रमण पूर्वक गृहस्थ कहें। ___“॥ हे जगवन् फासुएणं एसणिणं असण पाणखाश्मसाश्मेणं वथ्थकंबलपायपुरणपमिग्गहेणं श्रोसहनेसजेणं पामिररूवेणं सिङासंथारएणं जयवं मम गेहे अणुग्गहो कायवो ॥”
जोजनानंतर गुरुके पास शास्त्रका विचार करे, पढे, सुने. । पीछे धन उपर्जन करके घरको जाकर संध्यापूजा करके सूर्यके अस्त होनेसें दो घमी पहि ले, निजवांबित नोजन करे. सायंकालमें धर्मागार में सामायिककरके षमावश्यक प्रतिक्रमण करे. पीछे अपने घरमें थाके शांतबुद्धिवाला हुश्रा, जब एक पहर रात्रि जावे तब अहेतुस्तवादिक पढके प्रायः ब्रह्मचर्यव्रतधारी होके सुखसे निमा लेवे. जब निमाका अंत आवेतब परमेष्टिमंत्रस्मरणपूर्वक जिन, चक्री, आदिके चरित्रोंको चिंतन करे. और व्रता दिकोंके मनोरथ अपनी श्वासें करे, ऐसें अहोरा त्रिकी चर्या अप्रमत्त होके समाचरता हुथा, और

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