Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati

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Page 829
________________ अष्टमपरिछेद. सौधर्माधिपतिम्मिताङ्गतचतुःप्रांशुक्षश्रृंगोजतैः ॥ धारावारिजरैःशशांकविमलैः सिंचत्यनन्याशयः । शेषाश्चैव सुराप्सरस्समुदयाः कुर्वंतिकौतूहलम् ॥५॥ वीणांमृदंगतिमिलाकटाईनूर । ढक्कहुमुक्कपणवस्फुटकाहलानिः ॥ सणुऊर्शरकउंछनिषुषुणी नि यैिः सृजति सकलाप्सरसो विनोदनू ॥६॥ शेषाः सुरेश्वरास्तत्र, गृहीत्वा करसंपुटे ॥ कलशां स्त्रिजगन्नाथ, नपयंति महामुदः ॥७॥ तस्मिंस्तादृशउत्सवे वयमपि खोकसंवासिनो। ज्रांता जन्मविवर्त्तनेन विहितश्रीतीर्थसेवाधियः॥ जातास्तेन विशुद्धबोधमधुना संप्राप्य तत्पूजनं । स्मृत्वैतत्करवाम विष्टपविनोः स्नात्रं मुदामास्पदम्॥॥ ___ बालत्तणम्मि सामिश्र, सुमेरुसिहरम्मि कणयकल सेहिं ॥ तियसासुरेहिं एह विश्रो, ते धन्ना जेहिं दिहोसि ॥ए॥ ___ यह पढके कलशोंकरके जिनप्रतिमाको अनि षेक करे. । पीछे बडे बोटेके क्रमकरके सर्व पुरुष स्त्रि जी गंधोदकोंसे नात्र करे. । पीछे अनिषेकके अंतमें गंधोदकपूर्ण कलश लेके वसंततिलकावृत्त पढे । संघे चतुर्विध इह प्रतिनासमाने, श्रीतीर्थपूजनकृत प्रतिनासमाने ॥ गंधोदकैः पुनरपि प्रनवत्वजस्नं, स्नानं जगत्रयगुरोरतिपूतधारैः॥१॥

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