Book Title: Jain Dharm Sindhu
Author(s): Mansukhlal Nemichandraji Yati
Publisher: Mansukhlal Nemichandraji Yati

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Page 816
________________ अन्य जैनधर्मसिंधु. __ ऐसें कहके अपने आपको तिलक करना, पुष्पा दिकरके अपना शिर अर्चन करना. ॥ फिर पुष्प श्रदतादि हाथमें लेके ॥ __“उँ पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतित्रसकाया एकछि त्रिचतुः पंचेंडियास्तिर्यङ्मनुष्यनारकदेवगतिगताश्च तुर्दशरज्वात्मकलोकाकाश निवासिनः श्ह जिनार्च ने, कृतानुमोदना; संतु, निःपापाः संतु,निरपायाः संतु, सुखिनः संतु प्राप्तकामाः संतु, मुक्ताः संतु, बोध माप्नुवंतुः॥” ऐसें पढके दशों दिशाओं में गंध, जल, श्रदतादि क्षेप करना. पी। शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरताजवंतु नूतगणाः॥ दोषा प्रयांतु नाशं, सर्वत्र सुखीजवंतु लोकाः॥१॥ सर्वेपि संतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः ॥ सर्वे नमाणि पश्यंतु, मा कश्चिदुःखनाग नवेत्॥२॥ यह आर्या और अनुष्टुप बंद पढने. ॥ पीने ॥ “ नूतधात्री पवित्रास्तु अधिवासितास्तु सुप्रो षितास्तु ॥” ऐसें पढके प्रथम लीपी हुई नूमिमें जलसें सेचन करे. ॥ पी॥ ___“ॐ स्थिरायशाश्वताय निश्चलाय पीठाय नमः॥" ऐसें पढके धोयके चंदनसें लेपन करके स्वस्ति कसे अंकित ऐसा पूजापट्ट (स्थालादि) स्थापन करे, और चैत्यमें तो स्थिरबिंब होनेसें इन दोनों

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