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अष्टमपरिछेद.
देव नाटक के रसमें मग्न हैं, अट्टाट्टहास करते इत्यादि संसारकी चेष्टा जो अस्थिर हैं; लंजयेयुः - जे यापही ऐसे हैं, वे देव, अपने आश्रित सेवकोंको शांतपद, ( संसार चेष्टारहित मुक्ति, केवलज्ञाना दि कपद, ) कैसे प्राप्त कर सकते हैं? जैसें एरंमवृक्ष कल्प वृक्ष की तरें या नही पूर सकता है, यदि किसी मूढ पुरुषने एरंगको कल्पवृक्ष मान लिया तो, क्या वो कल्पवृक्ष की तरें मनोवांबित दे सकता है ? ऐसें ही कीसी मिथ्या दृष्टीनें पूर्वोक्त दूषणोंवाले कुदेवोंकों देव मान लिये तो, क्या वे देव परमेश्वर मोक्ष दाता हो सकते हैं ? कदापि नही हो सकते हैं ॥६॥
अथगुरुलक्षणमाह ॥ अथ गुरुके लक्षण कहते हैं | महात्र हिंसादि पांच महाव्रतके धारने पालनेवाले और आपदा में जी धीर साहसिक होके अपने व्रतोंको विराधे नहीं बेतालीश ( ४२ ) दूषण रहित निक्षावृत्ति ( माधुकरी वृत्ति) करके अपने चारित्रधर्म के तथा शरीरके निर्वाहवास्ते जोजन करे, जोजन जी कनोदरता संयुक्त करे, जोजनकेवास्ते अन्न पाणी रात्रिको न राखे, धर्मसाधनके उपकरण विना और कुछ जी संग्रह न करे, तथा धन, धान्य, सुवर्ण, रूपा, मणि, मोती, प्रवालादि परिग्रह, न राखे । सामा० रागद्वेषके परिणामरहित मध्यस्थ वृत्ति होकर सदा सामायिकमें वर्त्ते । धर्मोप० जो
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