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sau जैनधर्मसिंधु. धर्मी जीवोंके उकारवास्ते सम्यग् ज्ञानदर्शनचारि वरूप जगवंतके स्याहाद अनेकांतवरूप निरूपण किया है, तिस धर्मका उपदेश करे, परंतु ज्योति षशास्त्र, अष्टप्रकारका निमित्त शास्त्र, वैद्यकशास्त्र, धन उत्पन्न करनेका शास्त्र, राजसेवादि अनेकशास्त्र, जिनसें धर्मको बाधा पहुंचे तिनका उपदेश न करे, ऐसे गुरु कहिये । काष्ठमय बेमीसमान श्राप जी तरें, और औरोंको नी तारें. ॥७॥
अथ अगुरुलक्षणमाह॥अथ श्रगुरुके लक्षण कहते हैं ॥ सर्वा स्त्री, धन, धान्य, हिरण्य, रूपादि सर्व धातु, क्षेत्र, हाट, हवेली, चतुःपदादिक अनेक प्रका रके पशु, इन सर्वकी अभिलाषा है जिनको, सर्व जोजिनः । मधु, मांस, मांखण, मदिरा, अनंतकाय, अनदयादिक सर्व वस्तुके नोजन करनेवाले, सपरि ग्रहाः । जे पुत्र, कलत्र, धन, धान्य, सुवर्ण, रूपा, क्षेत्रादि सहित हैं, । अब्रह्म तथा अब्रह्मचारी हैं। मिथ्यो मिथ्या धर्मका उपदेश करें, ज्योतिष, निमि त्त, वेदक, मंत्र तंत्रादिकका उपदेश देवें, वे गुरु नही. लोहमय बेमी (नावा) समान, आप जी मुबें, औरोंको जी मुबावे ॥ ७॥
प्रोक्त वातही कहते हैं। परिग्रहा० स्त्री, घर लदमी श्रादि परिग्रह, और क्षेत्र, कृषी, व्यवसा यादि श्रारंन इनमें जे मग्न है, श्रापही जवसमु