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श्रष्टमपरिछेद. ३० होवे, सो अरिहंत, वीतराग, परमेश्वर, देव, कहिये, इससे अन्य को देव नही है. ॥३॥ __ ऐसा पूर्वोक्त साचा देव, पिडानके आराधना, सोही कहते हैं । ध्यातव्योयमित्यादि-पूर्व जो देवके लक्षण कहे, तिन लक्षणों संयुक्त जो देव, तिसको एकाग्र मनसें ध्यावना, जैसें श्रेणिक महाराजने श्रीमहावीरजीका ध्यान किया. । तिस ध्यानके प्रता वसे आगमी चनवीसी में श्रेणिक, वर्ण, प्रमाण,संस्थान, अतिशयादिकगुणोंकरके श्रीमहावीरखामिसरिखा 'पद्मनाज,' नाम प्रथम तीर्थंकर होगा. इसीतरें
औरोने नी तबीनपणे देवका ध्यान करना, तथा 'उपास्योयम् ' ऐसे पूर्वोक्त देवकी सेवा करनी श्रेणि कादिवत् । तथा इसी देवका, संसारके जयको टाल नहार जाणके, शरण वांडना.। इसी देवका शासन, मत, श्राज्ञा, धर्म, अंगीकार करना. । 'चेतनास्ति चेत् ' जो कोश् चेतना चैतन्यपणा है तो, सचेतन सजाण जीवको उपदेश दिया सार्थक होवे, परंतु अचेतन अजाणको दिया उपदेश क्या काम श्रावे ? इसवास्ते 'चेतनास्ति चेत् ' ऐसें कहा.॥४॥
श्रथादेवत्वमाह ॥ अथ श्रदेवके लक्षण कहतें है. ॥ ये स्त्री० ॥ जिनके पास स्त्री (कखत्र) होवे तथा खङ्ग धनुष्य चक्र त्रिशूलादिक शस्त्र (हथि यार) होवे, तथा अनसूत्र जपमाला श्रादि शब्द