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जैनधर्मसिंधु . बहत्तर कलाकुशल जी, विवेकसहित जी होवे, तो नी वो नर कुशल नहीं हैं; जो, सर्वकला योंमें प्रधान जो धर्मकला तिसको नही जाणताहो. ॥१॥ परमतमें नी.कहा है । 'उपनीतोपि पूज्योपि कलावानपि नार्गव । न परत्रेह सौख्यानि प्राप्नोति च कदाचन ॥१॥' इसवास्ते सर्वसंस्कार मे प्रधान व्रतसंस्कार कहते हैं.। तिसका विधि यह है.
पीबले विवाहपर्यंत संस्कार गृहस्थगुरु जैन ब्राह्म णने वा कुबकने कराने. परंतु व्रतारोपसंस्कार तो, नि ग्रंथ यतिनेही करावणा प्रथम गुरुकी गवेषणा करणी.
गुरू कैसे होना! पांच महाव्रतयुक्त,५,पांच प्रकारके श्राचार पाल नेमें समर्थ, ५, पांच समिति, ५, और तीन गुप्ति सहित, ३, एवं बत्तीस गुणोंवाला गुरु होता है। प्रतिरूप, तेजखी, युग प्रधान, आगमका जानकार, मधुर वाक्यवाला, गंजीर, बुद्धिमान्, उपदेश देने में तत्पर, ऐसा श्राचार्य होता है.। किसीका आलो चित दूषण अन्यागे प्रकाशे नही, सोमप्रकृति वाला होवे, शिष्यादिका संग्रह करनेवाला होवे, अव्यादि अनिग्रहमें जिसकी मति होवे, किसीके दूषण न बोले; चपल न होवे, प्रशांतहृदयवाला होवे, ऐसे गुणोंयुक्त गुरु होता है.। कितनेही जिन बरेंज अजरामर पदका पंथ दिखाके मोदको प्राप्त