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६न्न
जैनधर्मसिंधु. समें, गुरु शुक्रके अस्त हुए, मलमासमें, और जन्म मासमें, विवाहादि न करना. । मासांतमें, संक्रांति में, संक्रांतिके दूसरे दिनमें, ग्रहणादि सात दिनोंमें नी, पूर्वोक्त कार्य नही करना. । जन्मके तिथि वार, नक्षत्र, लग्नमें; राशि और जन्मके ईश्वरके अस्त हुए, और क्रूर ग्रहोकरके हत हुए नी, विवाह नही करणा. । जन्मराशिमें, जन्मराशि और जन्मलग्नसें बारमें और आपमेमें, और लग्नके अंशके अधिपके उठे, और आपमे घरमें गए हुए, लग्न नही करना. । स्थिर लग्नमें, वा हिखनावलग्नमें, वा सगुण करी संयुक्त चर लग्नमें, उदयास्तके विशुद्ध हुए, विवाह करना. परंतु उत्पाता दिकरके विदूषितमें नही करना.। लग्न और सप्तम घर, ग्रहकरके वर्जि त होवे; तीसरे, के, और इग्यारमे घरमें, रवि, मंगल और शनि होवे। और तीसरे घरमें, तथा पापग्रहवर्जित पांचमें घरमें राहु होवे; लग्नमें तथा पांचमें, चौथे, दशमे, और नवमे घरमें बृहस्पति होवे । ऐसेंही शुक्र, बुध, होवे; लग्न, बहे, आठमे, बारमे घरसें, अन्यत्र चंडमा होवे, सो नी पूर्ण होवे. । क्रूरकरके दृष्ट, और क्रूरसंयुक्त चंड वर्जना; क्रूर, और अंतस्थ लग्न और चंड वर्जने. । इत्यादि गुणसंयुक्त, दोष विवर्जित लग्नमें, शुन्न अंशमें शुज ग्रहोंकर दृष्ट हुए, पाणिग्रहण शुन्ज है. ॥ इत्यादि