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जैनधर्मसिंधु.
सनसें उठायके ग्रंथिवियोजन करे.
तदपीछे ग्रंथि वियोजनमंत्रो यथा ॥ ॐ श्रई । ग्रंथौ वियोज्यमानेऽस्मिन् स्नेहग्रंथिः स्थिरो स्तुवां ॥ शिथिलोस्तु जवग्रंथिः कर्मग्रंथिदृढी कृतः॥१॥
इस मंत्र करके ग्रंथि खोल के धर्मागारमें दंपती को लेजाके गुरु को वंदना करवावे, और साधुयोंको नि र्दोष जोजन वस्त्र पात्रादि दिलवावे. ॥
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तदपीछे स्वकुलाचारयुक्तिकरके कुलदेवता, गृह देता, पुरदेवतादि पूजन जानना. ॥ जैन वेद मंत्रोत्पत्ति ॥
यहां जो कहा है कि, जैनवेदमंत्र सो कथन करते हैं. यथा श्रादिदेव (रुषजदेव ) का पुत्र, अवधिज्ञानवान्, यादिचक्री, जरत राजा, श्रीमदादि जिनरहस्योपदेशसें प्राप्त किया है सम्यक् श्रुतज्ञान जिसने सो जरत राजा - सांसारिक व्यवहारसंस्कार की स्थितिकेवास्ते, अनकी आज्ञा पाकरके, धारे हैं ज्ञानदर्शनचा रि त्ररत्नत्रय करणा करावणा अनुमतिसें त्रिगुणरूप तीन सूत्र - मुद्राकर के चिन्हितवक्षःस्थलवाले ब्राह्म पोंको (माहनोंको) पूज्यतरीके मानता हुआ, और तिसवसर में अपनी वैक्रियलब्धिसें चार मुखवा ला होके, चार वेदोंको उच्चारण करता जया तिन के नाम - संस्कारदर्शन १, संस्थापन परामर्शन २, त वावबोध ३, विद्याप्रबोध ४ । सर्व नयवस्तु कथन
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