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अष्टमपरिजेद. ६४१ अनुमतिवाले ब्राह्मणोंको जिनोपवीतमें तीन अग्रः । और क्षत्रियोंको आप रत्नत्रयका आचरण करणा. और निजशक्तिसें न्याप्रवृत्तिकरके अन्योसें आच रण करावणा योग्य है. परंतु तिन दत्रियोंको अन्य जनोंको अनुज्ञा देनी योग्य नही है. क्योंकि. वे उकुराश्वाले प्रजुहोंनेसें अन्यों विषे नियमादिकी अनुझा नहीं देते हैं इसवास्ते क्षत्रियोंको जिनोपवी तमें दो अग्र. । वैश्योंने ज्ञाननक्तिकरके सम्यक्त्व धृतिकरके उपासकाचारशक्तिकरके स्वयमेव रत्नत्रय आचरणा । तिन वैश्योंको असामर्थ्य होनेसें अनु पदेशक होनेसे रत्नत्रयका करावणा और अनुमति का देणा योग्य नहीं है; इसवास्ते वैश्योंको जिनो पवीतमें एक अग्र. । श्रूजोंको तो ज्ञानदर्शनचारित्र रूप रत्नत्रयके करणेमें श्रापही अशक्त है तो करा वणा और अनुमतिका देणा तो दूरही रहा. तिनों को अधमजाति होनेसें, निःसत्व होनेसें, अज्ञान होनसे, तिनोंको जिनाज्ञानरूप उत्तरीयका धारण है । तिनसें अपर वणिगादिकोंको देवगुरुधर्मकी उपासनाके अवसरमें मात्र जिनाज्ञानरूप उत्तरासंग मुआहै. ॥ जिनोपवीतका खरूप यह है.॥ स्तनांतर मात्रको चौराशी गुणा करिये तब एकसूत्र होवे तिसको त्रिगुणा करणा, तिसको नी त्रिगुणा करके वर्तन करणां (वटना) ऐसें एक तंतु हुआ