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अष्टमपरिछेद.
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ऐसें पढके व्याघ्रचर्ममय आसन के ऊपर, वा कति काष्टमय आसनके उपर उपनीतकों बिठलावे. तिसके दक्षिण हाथकी प्रदेशिनी अंगुली में दर्जसहित कांच नमय षोमश १६ मासे प्रमाण ( पांच गुंजाका एक मासा जाना ) पवित्रिका मुद्रा पहरावे । पवित्रि का परिधापनमंत्रो यथा ॥
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" पवित्रं दुर्व्वनं लोके सुरासुरनृवचनम् ॥ सुवर्णं हंति पापानि, मालिन्यं च न संशयः ॥ १ ॥ तदपीछे उपनीत, मुखसें पंचपरमेष्ठिमंत्र पढता हुआ, गंध पुष्प अक्षत धूप दीप नैवेद्यकरके चारों दिशामें जिनप्रतिमाको पूजे । तदपीछे जिनप्रति माको प्रदक्षिणा करके और गुरुको प्रदक्षणा करके 'नमोस्तु २' कहता हुआ, हाथ जोंके ऐसें कहे ॥ "जगवन् उपनीतोहूं” गुरु कहे " सुष्नूपनीतो जव । ' फेर उपनीत 'नमोस्तु कहता हुआ नमस्कार करके कहे । " कृतो मे व्रतबंधः । " गुरु कहे । सुकृतोऽस्तु ।” फेर ' नमोस्तु' कहके नमस्कार करके शिष्य कहे । " जगवन् जातो मे व्रतबंधः । " गुरु कहे । " सुजातोऽस्तु ।” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । " जातोऽहं ब्राह्मणः । दत्रियो वा । वैश्यो वा । " गुरु कहे । " दृढव्रतो जव । दृढसम्य aat aa ।” फेर शिष्य नमस्कार करके कहे । 'जगवन् यदि त्वया कृतो ब्राह्मणोऽहं तदादिश
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