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__ जैनधर्मसिंधुः व्यवहारसें करने । संसारिक सर्व कर्म जैनब्राह्मणों
और धर्म कर्म निग्रंथों करके करावे. दृढसम्य क्त्वकी वासनावाला होवे । शत्रुयोंकरके समाकीर्ण रणमें हृदयके विषे वीररस धारण करना, युझमें मृत्युका नय सर्वथा नही करना । गौ ब्राह्मणके अर्थे, देवके अर्थे, गुरु और मित्रके अर्थे, स्वदेशके जंग होते, और युद्धमें, मृत्यु जी सहन करना योग्य है। ब्राह्मण और क्षत्रियकी क्रियामें कुबनी नेद नहीं है, परं अन्यको बतअनुज्ञा देनी विद्यावृत्ति, दान लेनेमे नेद हे. पुष्टोंका निग्रह करना योग्य है, लूमि. और प्रतापका लोन करना, ब्राह्मणसे व्यतिरिक्त क्षत्रिय दान आचरण (गृहण) करे ॥१९॥ इति क्षत्रियव्रतादेशः॥ अथ वैश्यव्रतादेशः॥
॥ मूलम् ॥ त्रिकालमहत्पूजा च सप्तवेलं जिनस्तवः ॥ परमेष्टिस्मृतिश्चैव निग्रंथगुरुसेवनम् ॥१॥ आवश्यकं छिकालं च द्वादशव्रतपालनम् ॥ तपोविधिहस्था) धर्मश्रवणमुत्तमम् ॥२॥ परनिंदावर्जनं च सर्वत्राप्युचितक्रमः ॥ वाणिज्यपाशुपाल्याच्यां कर्षणेनोपजीवनम् ॥३॥ सम्यक्त्वस्यापरित्यागः प्राणनाशेपि सर्वथा ॥ दानं मुनिन्य आहारपात्राबादनसद्मनाम् ॥४॥