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जैनधर्मसिंधु चंद कदे प्रजुजीकी सेवा, सिवसुख की है र निशानी ॥ ४ ॥ तारी इति .
पुन
अध्यातम स्तवन. __ क्योंकर जक्ति करुं प्रजु तेरी ॥ क्यों० ॥ काम । क्रोध मद मान विषय रस, बोडत गेल न मेरी प्र०॥ करम नचावत तिमहि नाचत, माया वस नट चेरी प्र ॥ दृष्टि राग दृढबंधन बांध्यो, निकसत न सहे सेरी ॥प्र० ॥ करत प्रसंशा सव मिल अपणी ॥ परनिंदा अधिकेरी ॥ कहत मान जिन नाव जगत विन; शिव गत होत न नेरी ॥प्र०॥ इति
पुनः संसार नाम जिस्का, जो सारा असार हैं, इस जगमें न कोई मेरा ॥ तेरा नाम सार है ॥ जवजल अगम अथाहरे इसका न पार है ॥ चारो गतिकी जवरां, पडती अपार है। से ॥१॥ जिया देख डरा मेरारे, तुमसे नहीं लिपा ॥तेरे हाथ मेरारे अबतो उधार है ॥ सं० ॥ तुम सिवाय देव मै, ध्यान दूसरा, मैंनेतो अपने दिलमें किया करार हैं ॥ स० ॥३॥ अव डोड सकल वातकुं तेरी शरन गही, जिनदास हाथ जोडके करता पुकार हे ॥सं॥४॥