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शष्टमपरिजेद.
५२१ सदा ॥ माने मान वधंतो होय, माने जीव फरे सहु कोय ॥ १७॥ माने बुझ गर्ने नर सोय, मान तजे ते सुखियो होय ॥ माने गज असवारी करे, माने जीव अगोचर फिरे ॥ १०॥ मानतणी ते ए गति कही, धर्मी नरते सुणजो सही ॥ हवे मायानो कहं विचार, माया नरक तणो गर ॥१५॥ मायामोह तणो दोष, माया कर्म तणोडे पोष ॥ माया कपटें महिनाथ, माया मोह तणोडे साथ ॥ २० ॥ माया यें कूम कपट केलवे, माहायें लुमी गति मेलवे ॥ माया मानव जूगेलवे, माया नरनारी शोषवे ॥२१॥ माया श्राखाम नूति मुणींद, मायायें लामु वोदोख्या फंद ॥ माया मोहो टो ने मकरंद, माया पडिया सू रज चंद ॥२२॥ माया फंद तणीजे जाल, माया सिंह तणी फाल ॥ माया अधिक करे उफंड, माया कर्म तणो कुंग ॥ २३ ॥ माया मांहे धर्म न थाय, माया पुण्य करे अंतराय ॥ २४ ॥ बोहोटो महोटो माया धरे, माया सबल संसारें फिरे ॥ माया जालें बांध्यो जीव, मायाये प्राणी करतो रीव ॥ २५ ॥ अर्थ कह्यो मायानो सार, लोन तणो हवे कहुं विस्तार ॥ लो ने लक्षण जाये सहु, लोने पमिया दाणव बहु ॥२६॥ लोने लाज घणेरो थाय, लोन्ने नरनारी जाय ॥ लो ने गांमो घेलो होय, लोने धर्म न जाणे कोय ॥७॥ लोने सागर दत्त जलमां पड्यो, लोन सुजुम चक्रीने