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चतुर्थपरिछेद.
३३३ पुनः (पहामी) कधी प्रजु पदमें मन लाया तो होता, अरे नि रगुनका गुण गाया तो होता । पडां है बेखबर मा याके फंदमें, जगतजंजालसुं बजाया तो होता ॥ ज क० १॥ अब अबसर आमिला, टुक सोच प्यारे, श्रातम हितकार प्रजु ध्याया तो होता ॥क०॥ तुं है मनमोहनके त्रिशलानंद प्यारा । जिन सेवामें सुख पाया तो होता, पुरायो आश चुनीकी प्रनुजी, दिल नर दरस दिखलाया तो होता ॥ ०३॥ इति
पुनः शांति वदनकज देख नैन मधुकर मन लीनोरे॥ जलाम टेर ॥ श्रीजिनके मकरंद बैन । विरमीन व पुरगन्ध रैंण शिवपुरके सदासुख कंद दैन। सम कितरस नीनोरे ॥ न १ कामित पूरण काम धेन । मद मोहके चूरण गंम फॅन, लहे मनको अली श्राराम चेन, गुंजै अति कीनोरे ॥ २॥ कपूर कहे जिनपदका अन । उरधारो नवि तारोन । हो य मुक्ति सेऊ पर सार सैन । आगम कह दीनोरे ॥जला ॥ इति
पुनः दिवाना तेरे दरसका यार मै हुँ। जो रखता हुँ तुऊसे सरोकार में हुं ॥ दि०॥ तेरा ध्यान रहता है हरदम् मुझको । टुक एक महर कीजो लाचार