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जैनधर्मसिंधु.
पुनः नवरिया मोरा कोन उतारे बेमा पार । इह सं सार समुद्र गंजीरा, किसबिध उतरूंगा पार ॥ न० ॥ १ ॥ राग द्वेष दोनुं नदियां वहत है । जमर पक त गति च्यार || न० ॥ २ ॥ षन दासको दरसन चहिये । ए वीनती अबधार ॥ न० ३ रागिणी रवी - ताल दादरा
जरलावोरे कटोरा केशरका में नब अंग पूजुं पर मेश्वरका ॥ ज० ॥ मरुदेवी कुंखें जन्म लियो है | कुमर नानि रत्ने सरका ॥ ज० १ ॥ केशर चन्दन पुष्प चढाउं ॥ मुख निरखु रुषनेसरका ॥ ज० २ ॥ रत्न जड़ितकी आरती उतारुं । नृत्य करूं परमेश्वर का ॥ ज० ३ ॥ मोती चंदकी एहिज वीनती, चरणन बोकुं परमेश्वरका ॥ ज० ४ ॥ इति
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पुनः
म्हारो मुंनें कब मिलस्यै मन मेलू ॥ मन मेलू बिन केलिन कलिए । वाले कवल कोई वेलुं ॥ म० १ ॥ आप मिलाथी अंतर राषै ॥ सुमनुष ते न ले लू || म०॥२॥ श्रानन्द घन प्रभु मन मिलियावि न ॥ कौ नवि विलगैंचेलू ॥ म० ३ ॥ भैरवी - ताल दादरा
इन्द्राणी प्रभुके वेगी श्रांज्यो कजरा । मे तो नवन करि कर लेही, तुं करले इयाकी जाप जीरा