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जैनधर्मसिंधु षकों अतिक्लेश, धर्मका उलंघन, नीचकी नोकरी, विश्वास घात, न करना.
लेण देणके कार्यमें अपने वचनका लोप करना नहि क्यों की अपने वचन पालनेवालोकी बमी प्र तिष्टा होती हे.
विचक्षणोंकों अपना धन मालका नुखसान होते बते जी अपने वचन पालनेकी बमि जरूरत हे.स्व प लानके वास्ते अपने वचनका लोप करनेवाले वसुराजाके न्याय पुःखी होते हे. __एसे एसे व्यवहारमे तत्पर पुरुषो तीसरा और चोथा प्रहर दिन वितावे. और संध्या समय व्यालु करनेकों अपने घरजावे. एकाशनादिक तप जिसने किया होय उनोने संध्या समय प्रतिक्रमणके वास्ते अपने गुरुके पास जाना.
दिवसके अष्टम नागमे ( चार घमी दिन उते) व्याद करना. सूर्यास्त समय और रात्रिकों विवेकी ने जोजन करना नही. थाहार, मैथुन, निझा, स्वा ध्याय ( पठन पाठन ) यह चार कृत्य संध्या समय प्राणिगणको विशेषकरके त्यागने चाहिये.
क्यों की सूर्यास्त समय नोजन करनेसें व्याधि होती है. मैथुन करे तो पुष्ट गर्न होता है. निखा करे तो नूतादिकोंका उपजव होता हे. पढन पाठ नसे निर्बुद्धी होता हे.