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जैनधर्मसिंधु.
नी. धर्मशास्त्रके रहस्य के जाणकारोंके साथ धर्म ( तात्वीक ) विचार जरूर करना चाइये.
जिससे पाप (धर्म) बुद्धिकी वृद्धि होय एसें लोगों में मित्रता और सहवासजी नहि रखना. को इका कोप, वचन सहन करना परं अपने न्यायको न बोमना.
वर्णवाद तो कोकानी विचक्षणने बोलना नही. और पिता गुरु, स्वामी, राजादिकका तो - वर्णवाद जरूर बोलना हि नही.
मूर्ख, दुष्ट, अनाचारी, मलीनजातिवाला, धर्मनिंदक, कुशीलिया, लोजि, चोर, इतनेकी संगती कभी नहि करनी.
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"अज्ञात जनकी प्रसंशा करनी, अज्ञातको अपने घरमें स्थान ( उतारा) देना, अज्ञात कुलसे सादी करना, अज्ञातकों नोकर रखना, अपनेंसे बड़े लोगों कोप वा विरोध करना, गुणिजनसें तकरार क रनी, पसे अधिक दरवालेंकों नोंकर रखना, करजा करके धर्ममे धन लगाना, अपनी दुःखी श्र वस्था में अपना धन पराये हाथमें होयसों नही याचना, अपने बिरादरोमें विरोध करना, स्वजनों को बोडकर अन्यजनोंसें मैत्री करना, शक्ति बते ध र्ममे उद्यम नही करना, नोकरोका दंड करके उस धनसे अपनें मजा उमानी, दुःखी अवस्था में अप