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तृतीयपरिवेद.
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ने बांधवोंका साहाय याचना, अपने मुखसें अपने गुणका वर्णन करना, अपने बोलते बोलते हंसना, जिस तिसका खाना,” यह सब कार्य लोक विरूदे और मुर्खताके चिन्हहें सो त्याग करना. न्यायसे धन उपार्जन करना. अपनी रीत रीवाजोंमें देश, कालके विरुष्का त्याग करना, राज विरोधियोका संग और महाजनसे विरोध न करना कुल,शील,श्राचारमे अ पने समान जनसे और निन्न गोत्रवालेसें ब्यावसादी करना. अपनी जातिवालोंके पडोसमें अपना निवास रखना. जहां उपजव होवे एसें स्थानका त्याग करना, अपनी पेदासीके प्रमाणमे खर्चरखना लोकमे निंदा न होय एसा अपनी संपदानुसार वेष रखना-अपने देशका याचारको और अपने धर्मको न बोमना.
जो अपना श्राश्रय चाहे उनकें हितमें रहना. अपना बलाबलका विचार रखना- अपने हित अहितका विशेष विचार रखके कार्यमे प्रवर्त्तना. श्रप नी इजियोंकों वश्य रखना- देव व गुरुमें बडा नक्ति जाव रखना. स्वजन, दीन हीन फुःखी, अतिथी की यथायोग्य भागता स्वागता करनी. यह विचार चा तुर्यताको अपने चित्तमें रखना. विचदणोसें शास्त्रसु नता, वा सीखता थका विचक्षण कितनाक समय को व्यतीत करे. नसीब पर विश्वास रखकर निरू