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( १३ ) न करनी चाहिये । अव्रती का जीवित रहना या मरमा जो साधु चाहता है, उसको राग और द्वेष दोनों ही लगते हैं ।
इन और ऐसे ही दूसरे कथनों द्वारा तेरह-पन्थी माधु एकेन्द्रिय (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीव) तथा पंचेन्द्रिय ( मनुष्य, गाय, हाथी, घोड़ा आदि ) को समान सिद्ध करते हैं, और कहते हैं कि पंचेन्द्रिय की रक्षा करने में एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है, इसलिए रक्षा करना पाप है। जो पंचेन्द्रिय जीव बचा है, उसको बचाते समय भी एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है, और वह जीवित रहकर भी एकेन्द्रिय जीव ( अन्न, जल, वनस्पति, वायु आदि ) की खान-पान. श्वासोछास द्वारा हिंसा करेगा। इसलिए किसी भी जीव को बचाना पाप है।
तेरह-पन्थी लोग एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को समान बताते हैं, परन्तु वास्तव में उनका यह कथन असंगत है । स्वयं तेरह-पन्थी लोग एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को समान बताते हुए भी एकेन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय को महत्व देते हैं तथा पंचेन्द्रिय
* यह न भूलना चाहिए कि तेरह-पन्थी लोग साधु और गृहस्थ का भाचरण एक बताते हैं और इसीलिए जो कार्य साधु के लिए निषिद्ध है, वही गृहस्थ श्रावक के लिए भी निषिद्ध है, ऐसा सिद्धान्त कायम करते हैं।
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