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( ५१ ) . छः काय रो शस्त्र जीव अवती, साता पूछे ने साता उपजावे। त्याँरी करे बियावच्च विविध प्रकारे तिण ने तीर्थकर देव तो नहीं सरावे ॥
('अनुकम्पा' ढाल ११ वीं) अर्थात्-असंयम जीवन और बाल मरण की आशा कामना न करनी चाहिये, किन्तु पण्डित मरण और संयम जीवन की ही श्राशा ( इच्छा ) मन में रखनी चाहिये । जीव कर्म के कारण मरते जीते हैं। उनका जीवन असंयम पूर्ण है, इसलिए साधु उनकी रक्षा का उपाय नहीं करते। असंयति जीवों का जीवित रहना साक्षात् पाप पूर्ण जीवन है। इसलिए उनको दिया गया दान सावध ( पाप ) दान है, उसमें अंश-मात्र भी धर्म नहीं है। अव्रती जीव छः काय का शस्त्र है। उनको शान्ति पूछना, अथवा उनको शान्ति देना अथवा अनेक प्रकार से उनकी सेवा, करना नादि कामों की (पाप है इसलिए ) तीर्थकर देव सराहना नहीं करते हैं।
इन सब सिद्धान्त वाक्यों का स्पष्टीकरण करते हुए तेरहपन्थी लोग 'भ्रम-विध्वंसन' पृष्ठ ८२ में कहते हैं
छत्र काय रा शस्त्र ते कुपात्र छ। तेहने पोष्याँ धर्म पुण्य किम निपजे । डाह्या हुए तो विचारि जोइ जो॥
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