Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Balchand Shrishrimal

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Page 186
________________ ( १७५ ) उपदेश देने जितना अवकाश नहीं रहा हो, अथवा उपदेश से वह घातक समझे ऐसा न हो, किन्तु उस समय हिम्मत भरा हुवा परकार करने मात्र से जो दुष्ट मनुष्य के गात्र थरथरा जाते हों तो भी सिर्फ उपदेश ही सुनाना और यह दृश्य न देखा जाता हो तो वहाँ से चले जाना, भाग छुटना, इसमें दया, अहिंसा या जिन देव प्ररूपित सिद्धान्त की बात तो दूर रही, मनुष्य की मानवता ही कहाँ रही। और जो साधु साध्वी नहीं कर सके, यानि मरते प्राणि को बचाने की क्रिया, जो संसार त्यागी विरागी भी नहीं कर सके, वह श्रावक श्राविका से तो बने ही कैसे ? पामरता की इससे अधिक मर्यादा दूसरी क्या हो सके। घातक का घातकोपन और निर्दोष बालक की हत्या यह सब शुभाशुभ कर्म का परिणाम है, ऐसा यह वकील भाई अपने को व्यवहार के विषय में भी जॅचाना चाहते है, परन्तु यह तत्वज्ञान मूल भूमिका बगैर का होने से यहाँ टिक नहीं सकता, कंगाल बन जाता है। जैन धर्म के उच्चतम सिद्धान्तों का यह दुरुपयोग नहीं तो अन्य क्या कहा जाय ? तेरह-पन्थ की जमात जो वृद्धि पामें यानि जगत भर में तेरा-पन्य मान्यता प्रवर्त हो जाय तो समाज की कैसी स्थिती हो ? कदाच समाज जैसा ही कुछ रहने नहीं पावे । ___x 1 x x x x Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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