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( ७९ ) भावकों का सूत्र पठन, जिनाज्ञा के बाहर बताया है और जिनाझा के बाहर के समस्त कार्यों को तेरह-पन्थी साधु पाप कहते ही हैं। इस प्रकार श्रावकों का सूत्र पढ़ना पाप ठहराया है। श्रावकों को सूत्र पढ़ना पाप है, यह बताने और सिद्ध करने के लिए 'भ्रम-विध्वंसन' में पृष्ठ ३६१ से ३७३ तक 'सूत्र पठनाऽधिकार' नाम का एक पूरा अध्याय ही है ।
इन सब बातों के होते हुए तेरह-पन्थी साधुओं का दूसरा सत्य-व्रत शेष कहाँ रहा ? जैसा कि हम बता चुके हैं, तेरह-पन्थी साधु स्वीकृत-व्रत में से पहले, दूसरे और पाँचवें ब्रत का स्पष्टतया उल्लंघन करने वाले हैं, इसलिए वे ही कुपात्र हैं; लेकिन श्रावक ने जितने व्रत स्वीकार किये हैं, उनका पूरी तरह पालन करता है, इसलिए वह कुपात्र नहीं है।
इस प्रकरण में हम बहुत लिख चुके हैं। अन्त में यह कह कर, हम इस प्रकरण को समाप्त करते हैं कि तेरह-पन्थी साधुओं का अपने सिवाय और सब लोगों को कुपात्र बताना तथा और किसी की रक्षा-सहायता को पाप बताना बिल्कुल झूठ, असंगत
और मनघदन्त सिद्धान्त है। अपने मत का प्रचार करने के लिए ही उन्होंने सुपात्र तथा कुपात्र शब्दों की कल्पना की है, और इन शब्दों का उपयोग या दान को पाप ठहराने में किया है।
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