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( १२४ ) होता, तो चित्त प्रधान केशी स्वामी से पशु-पक्षी, ब्राह्मण भिखारी और देश आदि का लाभ होने की बात न तो केशी श्रमण से हो, कहता और न केशी श्रमण ही उसके कथन को स्वीकार करते।
शास्त्र में अभय-दान को सब से श्रेष्ठ दान कहा है। लेकिन तेरह-पन्थी लोग कहते हैं, कि किसी जीव को न मारना, यही अभय-दान है, किसी मरते हुए जीव को बचाना अभय-दान नहीं है। उनका यह कथन शास्त्र के भी विरुद्ध है और युक्ति के भो विरुद्ध है। देने का नाम दान है। न देने का नाम तो दान है ही नहीं। यदि बिना दिये ही दान हो सकता हो, तब तो साधु को आहार-पानी दिये बिना हो, केवल साधु को कष्ट न देने मात्र से ही सुपात्र दान भी हो जावेगा। परन्तु तेरह-पन्थी लोग सुपात्रदान के लिए तो ऐसा मानते नहीं है, कि साधु को कष्ट न देने मात्र से ही सुपात्र दान हो जाता है, और अभय-दान के लिए कहते हैं, कि किसी को भय न देने से ही अभय-दान हो जाता है।
यदि तेरह-पन्थियों का यह कथन ठीक हो, तब तो स्थावर जीव सब से अधिक अभय दान देने वाले सिद्ध होंगे। क्योंकि पृथ्वी कायिक, जल-कायिक और वनस्पति-कायिक जीव किसे भय देते हैं ? इसलिए किसी जीव को भय न देने का नाम ही अभय-दान
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