Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Balchand Shrishrimal

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Page 171
________________ ( १६० ) यदि मेरे इन विचारों पर सम्प्रदायान्ध और धर्मान्ध लोग बिगड़ उठे तो कोई ताज्जुब की बात न होगी। धर्म गुरु भी यदि मेरे इन 'अशास्त्रीय' विचारों पर तिलमिला उठे तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा। ये विचार ऐसे हैं ही नहीं, जो आसानी से हजम हो सकें और खास तोर से उस व्यक्ति के लिये जिसमें कोई भी नई वस्तु हजम करने की ताकत ही नहीं रह गई है। पर मैंने तो अपने विचार निस्संकोच और निर्भीकता के साथ प्रकट कर दिये हैं। एक बात जरूर मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैंने तेरा-पन्थी सम्प्रदाय की आलोचना नहीं की है, पर उस निकम्मे जीवन की मालोचना जरूर की है जिसे मैं आज धर्म के नाम पर पोषण मिलता हुआ देखता हूँ। यद्यपि आज मैंने ये विचार तेरा-पन्थी सम्प्रदाय के साधुजी से हुई मुलाकात के प्रसंग में प्रकट किये हैं, पर थोड़े बहुत फर्क के साथ ये विचार आज सभी फिरकों के जैन साधुषों पर लागू होते हैं। कोई यदि इन विचारों को धर्मद्रोही और शास-द्रोही कहे तो मुझे आपत्ति न होगी, पर यदि कोई इनको एक सम्प्रदाय विशेष को आलोचना के रूप में वतावेगा, तो इस तरह मेरे विचारों को गलत समझा जाने पर मुमे दुख होगा। पड़िहारा को मुगकात के बारे में इतना हो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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