Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Balchand Shrishrimal

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Page 179
________________ चिट्ठी-पत्री ( 'तरुण जैन' नामक मासिक पत्र अंक ३ मार्च १९४२ से उद्धृत ) मान्यवर सम्पादक महोदय ! मैं यह पत्र आपकी सेवा में पहिले-पहल ही प्रेषित कर रहा हूँ । सब से पहिले मैं आपको मेरा कुछ परिचय दे दूँ। मैं थली प्रान्त के एक बड़े शहर का रहने वाला और दस्से- बीसे से भी बढ़कर पचीसा तीसा ओसवाल हूँ । शायद अन्य लोगों की तरह आप भी पूछ बैठें कि मैं किस मजहब को मानने वाला हूँ ? पहिले ही कह दूँ कि मैं इस वक्त जैन श्वेताम्बर पौने तेरापन्थी हूँ । आप शायद इसको मजाक समझेंगे, मगर मैं आप से कसमिया कहता हूँ कि आपके 'तरुण' ने और खास करके आपके दो लेखकों ने मेरा पाव पंथ घिस डाला । आप समझ गये होंगे, दो लेखकों से मेरा मतलब किन से है । श्रापको मालूम रहना चाहिये कि मैं पुस्तैनी जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ मजहब का कट्टर श्रावक था, भगर आपके इन दो गजब के लेखकों ने हनुमानजी के पाव रोम की तरह मेरा पाव पन्थ काट डाला । मुझे अब यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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