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( १६९) भय है कि कहीं मेरा रहा सहा पन्थ ही न उड़ जाय। श्री 'भन्न हृदय' जी के लेखों को तो मैं जैसे तैसे हजम कर गया। मैंने सोचा कि चलो साधुओं के क्रिया कलाप और आचरण दुरुस्त नहीं रहे हों तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं, पञ्चम काल है, हुण्डा अवसर्पिणी का समय है, मगर श्री बच्छराजजी सिंघी के लेखों ने तो मेरा पन्थ ही उड़ाना प्रारम्भ कर दिया। अब तो मैं देख रहा हूँ, यह पौने तेरह भी कायम रहना कठिन हो रहा है। मुझे यह पूर्ण विश्वास था कि हमारे पूज्यजी महाराज, जो शास्त्र फरमाते हैं, वे सोलह आना ठीक और अक्षर अक्षर सत्य हैं मगर सिंघीजी के लेखों ने तो आँखों की पट्टो खोल दो। सम्भवतः मुंह की पट्टी भी जो कभी कभी लगा लेता हूँ, अब खतरे में है।
हमारे पूज्यजी महाराज जब थली प्रान्त में विराजते हैं, तब अक्सर मैं सेवा में साथ साथ रहता हूँ। मैं देख रहा हूँ, जब से ये शास्त्रों की बातें, 'तरुण' में आने लगी हैं, हमारे मोटके सन्त आपके 'तरुण' को इन्तजारी में बाट जोते रहते हैं। इधर कुछ समय से आपके 'तरुण' ने भी नखरे से पेश कदमी शुरू कर दी है। 'तरुण' के पहुँचते हो मोटके सन्तों की मीटिंगें होने लगती हैं। पूज्यजी महाराज भी पढ़ते हैं। वातावरण में कुछ हलचल सी मच जाती है। उस दिन मेरे सामने ही 'तरुण' की बातें चल रही थीं। एक अनन्य भक्त और विश्वास पात्र श्रावक मर्ज कर रहे थे
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