Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Balchand Shrishrimal

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Page 176
________________ है, समाज से अपने लिए नाना भाँति की सेवा लेते रहने में कोई आपत्ति नहीं समझता। आप अगर १०-१५ दिन लगातार हमारे साधुणों को सेवा (!) का लाभ लें तो आपको पता लगेगा कि जहाँ पूज्यजी की सवारी पहुँच जाती है, वहाँ के समाज की इस सेवा के भार से क्या हालत हो जाती है। माघ महोत्सव और चातुर्मास के दिनों में गाँव वालों की परेशानियों इतनी बढ़ जाती हैं, कि जिसका कुछ ठिकाना नहीं। सम्पादकोंजी! मुझे सचमुच अपने समाज के उन हजारों स्त्री पुरुषों पर तरस आता है, जो विवेक की ऑखे बन्द हो जाने के कारण इनके जाल में फंसे हुए हैं। थली के गाँवों को सार्वजनिक और सांस्कृतिक हालत का जो दिग्दर्शन आपने अपने लेख में कराया है, उसको पढ़कर क्या हमें शर्म नहीं जाती ? हमार। मस्तक झुक जाता है, हमारा यौवन बलवा कर उठता है, पर क्या करें सम्पादकोजी! यह सब हमारे उन साधुओं की कृपा है। जहाँ ये विराजते हैं, वहाँ आस पास कोसों तक मानवता के खेत सूख जाते हैं क्योंकि इनके उपदेश ही ऐसे हैं। हम जानते हैं कि इससे जैन धर्म कलंकित हो रहा है क्योंकि हमारी तरफ की जनता तो इन्हीं जैन मूर्तियों को ज्यादा देखती है, और इस बात से प्रभावित भी होती है कि इनको मानने वाले सब सेठ लोग हैं, छाखों और करोड़ों रुपया कमाते हैं। ये साधु खुद तो परिवार, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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